हमारे हिन्दू धर्म में कई सारे रीति रिवाज बनाये गये है जिसका हमे पालन करना पड़ता है और इन्ही परम्पराओं में से एक ऐसी भी परम्परा है जो समाज मे कई वर्षों से चली आ रही है या यूं कहें कि सबसे बड़ी कुरीति जो किसी पारिवारिक सदस्य की मत्यु उपरांत शोक संतप्त परिवार द्वारा दिया जाने वाला भोज जो समाज मे मृत्युभोज के रूप में प्रचलित है या फिर ये कहे की जिस भोजन को रोते हुए बनाया जाता है,,! जिस भोजन को खाने के लिए रोते हुए बुलाया जाता हैं,,! जिस भोजन को आँसू बहाते हुए खाया जाता हैं उस भोजन को मृत्युभोज कहा जाता है।मृत्युभोज एक सामाजिक कुरीति है।
इससे गरीब वर्ग ज्यादा प्रभावित होता है। आर्थिक रूप से और कमजोर हो जाता हैं।पुराने समय से तो ऐसा होता रहा था और इस तरह की परंपरा थी कि कि जिस परिवार में मृत्यु हुई होती है वहाँ 12 दिन के शोक तक भोजन ही नहीं बनता था बल्कि अन्य सामाजिक सदस्य उनके भोजन आदि की व्यवस्था करते हैं। लेकिन आज के समय मे यह रीति शोक संतप्त परिवार पर इन 12 दिनों तक कई प्रकार का आर्थिक बोझ डालने वाली एक कुरीति मात्र बन कर रह गयी है।
यह तो बात हुई सामाजिक परंपरा की, लेकिन मृत्युभोज नहीं करना चाहिए। इस बात को स्पष्ट करती एक पौराणिक कथा का उल्लेख महाभारत में मिलता है।महाभारत का युद्ध होने को था, अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया ।दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कृष्ण ने कहा कि ’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’ अर्थात् “जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए। लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो, तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।”
जैसा की हम सभी जानते है की हमारे हिन्दू धर्म में कुल 16 संस्कार बनाए गए है, जिनमें से प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वां संस्कार अंत्येष्टि है।इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार तेरहवीं संस्कार कहाँ से आ गया।किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है।बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है। क्योंकि जिस भोजन बनाने का कृत्य…. रो रोकर हो रहा हो…. जैसे लकड़ी फाड़ी जाती तो रोकर…. आटा गूँथा जाता तो रोकर…. एवं पूड़ी बनाई जाती है तो रो रोकर…. यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा हुआ। ऐसे आँसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन अर्थात बारहवीं एवं तेरहवीं के भोज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा दें।
अगर देखा जाये तो इंसानों से ज्यादा समझदार तो जानवर होते है और हमे जानवरों से ये सीखना चाहिए की जिस तरह से जानवरों में अगर किसी का साथी बिछुड़ जाता है तो उस दिन वे चारा नहीं खाता है। जबकि 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव,जवान आदमी की मृत्यु पर हलुवा पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है।इससे बढ़कर निन्दनीय कोई दूसरा कृत्य हो नहीं सकता।यदि आप इस बात से सहमत हों, तो आप आज से संकल्प लें कि आप आज के बाद कभी भी किसी के मृत्यु भोज को ग्रहण नहीं करेंगे बस उसके दुःख के पलों में उसके साथ कहदे रहेंगे |