मां के साथ नंगे पांव घूम-घूमकर बेचा करते थें चूड़ियां, आज IAS बन चुका है ये बेटा

वो कहावत आपने सुनी होगी कि इंसान में अगर जूनून हो तो वो कुछ भी कर गुजरता है, और उस समय किस्मत भी उसके आगे हार मान जाती है। वहीं ये भी बता दें कि कई लोग ऐसे होते हैं, कई बार तो ऐसा भी होता है कि इंसान अपने सपने को पूरा करने के लिए काफी मेहनत करता है और अपने बल बुते पर चाहे कितनी भी समस्याएं क्यों न आए उसे पूरा भी करता है कुछ ऐसी ही कहानी है इस लड़के की। जो एक समय में अपना पेट पालने के लिए अपनी मां के साथ गलियों में घूम घूमकर चूड़ियां बेचा करता था लेकिन आज अपनी मेहनत के बल पर वह आईएएस बन चुका है। जी हां ये कहानी महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के वारसी तहसील के महागांव निवासी रमेश घोलप की है जिसने अपने सपने को पूरा करने के लिए सभी चीजों को दरकिनार कर दिया।

क्या नींद क्या भूख ये सभी चीजों को रमेश ने दरकिनार किया और आज वो कर दिखाया जो किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। रमेश का बचपन भी काफी मुश्किलों भरा रहा, वो बताते हैं कि जिस उम्र में सभी बच्चे स्कूल के लिए तैयार होते थें वो अपने मां के साथ नंगे पांव चूड़ि‍यां बेचने निकल जाया करते थे। रोटी के संघर्ष में रमेश और उनकी मां गर्मी-बरसात और जाड़े से बेपरवाह होकर नंगे पांव सड़कों पर फेरी लगाया करते थे। लेकिन आज वही रमेश एक IAS अफसर हैं।

हालांकि आपने एेसी कई कहानियां सुनी होगी लेकिन रमेश की कहानी वाकई में एक मिसाल पेश करती है। इनकी कहानी उन लोगों के लिए है जो विकट परिस्थितियों में हार मान जाते हैं, क्योंकि रमेश के सामने उनकी विपरीत परिस्थितयों ने भी हार मान लिया। आपको बता दें कि रमेश के पिता नशे के आदी थे और अपने परिवार का ख्याल नहीं रखते थे। अपने घर-बार का खर्चा उठाने के चक्कर में मां-बेटे चूड़ियां बेचने को विवश थे। कई बार तो इस काम से जमा पैसों से भी पिता शराब पी जाया करते थे।

रमेश बढ़ती उम्र से तालमेल बिठाते हुए मैट्रिक तक पहुंचे ही थे कि उनके पिता की मृत्यु हो गई। इस घटना ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया, लेकिन वे फिर भी डटे रहे। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दी और 88.50 फीसदी अंक हासिल किए। तंगहाली के दिनों में रमेश ने दीवारों पर नेताओं के चुनावी नारे, वायदे और घोषणाओं इत्यादि, दुकानों के प्रचार, शादियों में साज-सज्जा वाली पेंटिंग किया करते थे। इस सबसे मिलने वाली रकम को वह पढ़ाई और किताबों पर खर्च किया करते थे।

इतना ही नहीं मां बेहद कम उम्र से ही रमेश को हर चीज के लिए जद्दोजहद करते-करते रमेश काफी कुछ सीख गए। जैसे कि लोकतंत्र में तंत्र का हिस्सा होना क्या-क्या दे सकता है। व्यवस्था को बदलने के लिए क्यों व्यवस्था में घुसना बेहद जरूरी है। रमेश कहते हैं कि संघर्ष के लंबे दौर में उन्होंने वो दिन भी देखे हैं, जब घर में अन्न का एक दाना भी नहीं होता था। फिर पढ़ाने खातिर रुपये खर्च करना उनके लिए बहुत बड़ी बात थी।

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